हासिल-ए-ग़ज़ल शेर

माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नही हूँ मै
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं

Friday, October 28, 2011

आते आते मेरा नाम...

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आप को देख कर देखता रह गया  
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया*

आते आते मेरा नाम सा रह गया   
उसके होंठों पे कुछ कांपता रह गया 

वो मेरे सामने ही गया और मैं  
रास्ते की तरह देखता रह गया 

झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गए  
और मैं था की सच बोलता रह गया 

आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे  
ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया 

- वसीम बरेलवी 


*First sher from Aziz Qaizi(Qaisi)'s ग़ज़ल


आप को देख कर देखता रह गया  
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया  

उन की आँखों में कैसे छलकने लगा  
मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया  

ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर   
आखरी हमसफ़र रास्ता रह गया  

सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये 
जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया  

Sunday, October 16, 2011

The Unforgettables ---


आये हैं समझाने लोग
हैं कितने दीवाने लोग

दैर-ओ-हरम में चैन जो मिलता
क्यों जाते मैखाने लोग

जान के  सब कुछ, कुछ भी ना जाने
हैं कितने अनजाने लोग

वक़्त पे  काम नहीं आते हैं
ये जाने पहचाने लोग

अब जब मुझ को होश नहीं हैं
आये हैं समझाने लोग




Sunday, October 9, 2011

इतकेच मला जाताना


बाबांना आवडणारी सुरेश काकांची एक गझल.... दोघांच्या आठवणीत  

इतकेच मला जाताना सरणावर कळले होते-
मरणाने केली सुटका जगण्याने छळले होते !

ही दुनिया पाषाणांची बोलून बदलली नाही,
मी बहर इथे शब्दांचे नुसतेच उधळले होते !

गेलेल्या आयुष्याचा मधुमास गडे विसरू या,
पाऊल कधी वाऱ्याचे माघारी वळले होते ?

मी ऐकवली तेव्हाही तुज माझी हीच कहाणी-
मी नाव तुझे तेव्हाही चुपचाप वगळले होते !

याचेच रडू आले की जमले न मला रडणेही
मी रंग तुझ्या स्वप्नांचे अश्रूंत मिसळले होते

नुसतीच तुझ्या स्मरणांची एकांती रिमझिम झाली-
नुसतेच तुझे हृदयाशी मी भास कवळले होते !

घर माझे शोधाया मी वाऱ्यावर वणवण केली-
जे दार खुले दिसले ते आधीच निखळले होते !

मी एकटाच त्या रात्री आशेने तेवत होतो-
मी विझलो तेव्हा सारे आकाश उजळले होते !

- सुरेश भट

Wednesday, October 5, 2011

ख्वाब था...


सुबह सुबह एक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला 
देखा सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आये हैं 
आँखों से मानूस थे सारे चेहरे सारे सुने सुनाए

पांव धोये, हाथ धुलवाए, आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पे मक्की के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए 
पोटली में मेहमान मेरे कुछ पिछले सालों की फसलों का गुढ़ लाये थे 
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था 
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक बुझा नहीं था
और होटों पर मीठे गुड का जयका अब तक चिपक रहा था
ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा

सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली 
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख़्वाबों का खून हुआ.

--- गुलज़ार  ( मरासिम )


Friday, September 30, 2011

चार होत्या पक्षिणी...

To all my friends who appreciate Marathi...

चार होत्या पक्षिणी त्या रात्र होती वादळी
चार कंठी बांधलेली एक होती साखळी

दोन होत्या त्यात हंसी राजहंसी एक ती
आणि एकीला कळेना जात माझी कोणती

शुभ्र पंखांतून त्यांच्या वीज होती साठली
ना कळे एकीस की माझी लियाकत कोठली

तोडुनी आंधी तुफाने चालल्या, ती चालली
तीन होत्या दीपमाला एक होती सावली

बाण आला तो कोठुन जायबंदी हो गळा
सावलीला जाण आली जात माझी कोकिळा

कोकिळेने काय केले ? गीत झाडांना दिले
आणि मातीचे नभाशी एक नाते सांधले

मी सुरांच्या अत्तराने रात्र सारी शिंपली
साधनेवर वेदनेवर रागदारी ओतली

ती म्हणाली, एकटी मी राहिले तर राहिले
या स्वरांचे सूर्य झाले, यात सारे पावले

गीत: विष्णू वामन शिरवाडकर ( कुसुमाग्रज )