सुबह सुबह एक ख्वाब की दस्तक पर दरवाजा खोला
देखा सरहद के उस पार से कुछ मेहमान आये हैं
आँखों से मानूस थे सारे चेहरे सारे सुने सुनाए
पांव धोये, हाथ धुलवाए, आँगन में आसन लगवाए
और तंदूर पे मक्की के कुछ मोटे मोटे रोट पकाए
पोटली में मेहमान मेरे कुछ पिछले सालों की फसलों का गुढ़ लाये थे
आँख खुली तो देखा घर में कोई नहीं था
हाथ लगाकर देखा तो तंदूर अभी तक बुझा नहीं था
और होटों पर मीठे गुड का जयका अब तक चिपक रहा था
ख्वाब था शायद, ख्वाब ही होगा
सरहद पर कल रात सुना है चली थी गोली
सरहद पर कल रात सुना है कुछ ख़्वाबों का खून हुआ.
--- गुलज़ार ( मरासिम )