हासिल-ए-ग़ज़ल शेर

माना के मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़कर नही हूँ मै
लेकिन हवा के रहम-ओ-करम पर नहीं हूँ मैं

Tuesday, December 1, 2009

माना के मुश्त -ए-ख़ाक से

Song: Maana ke musht-e-khaak se
Artist: Jagjit Singh
Lyrics: Muzaffar Warsi

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 माना  के  मुश्त -ए-ख़ाक  से
माना  के  मुश्त -ए-ख़ाक  से  बढ़कर  नहीं  हूँ  मैं 
लेकिन  हवा  के  रहम-ओ-करम  पर नहीं  हूँ  मैं   
[मुश्त -ए-ख़ाक – fistful of dust; रहम-ओ-करम – kindness/favors]

इंसान  हूँ  धड़कते  हुए  दिल  पे  हाथ  रख
यूं  डूबकर  ना  देख   समंदर नहीं  हूँ  मैं 

चहरे  पे  मल  रहा  हूँ  सियाही नसीब  की
आईना  हाथ  में  हैं सिकंदर  नहीं  हूँ  मैं
[सियाही - ink]

ग़ालिब  तेरी  ज़मीन  में   लिक्खी  तो  है  ग़ज़ल 
तेरे कद-ए-सुखन  के  बराबर  नहीं  हूँ  मैं 
[ज़मीन  में – style mein; सुखनवर- poet, कद-ए-सुखन – calibre of your poetry]

Note: The use of word zamin is because of style and not because of the “land”.
The above ghazal is written in a similar style as one of Mirza Ghalib’s ghazal, which goes like this
दायम  पडा  हुआ  तेरे  दर  पर  नहीं  हूँ  मैं
ख़ाक  ऐसी  ज़िंदगी  पे  के  पत्थर  नहीं  हूँ  मैं
[दायम=forever]
………...
………...
………...
‘ग़ालिब’ वजीफा-ख्वार  हो , दो  शाह  को  दुआ
वो  दिन  गए  की  कहते  थे  “नौकर  नहीं  हूँ  मैं”
[वजीफा-ख्वार  - one who is on pension ( in this case from the shaah)]